महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” (The Story of My Experiments with Truth) में साफ़-साफ़ स्वीकार किया है कि अपने शुरुआती जीवन में वो बहुत शर्मीले, बेहद झिझकने वाले और आत्मविश्वास की कमी वाले युवक थे. किसी के सामने बोलने में उन्हें दिक्कत होती थी. अपनी बातें वह लोगों के बीच तरीके से नहीं कह पाते थे. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि वो खुद को बदल पाए. लाखों लोगों के सामने भाषण देने लगे. मीडिया से मुखातिब होने लगे. और मुश्किल से मुश्किल मौकों पर उनका गजब का आत्मविश्वास लोगों के हौसले बढ़ा देता था.
गांधीजी लिखते हैं कि छात्र जीवन में वे इतने शर्मीले थे कि कक्षा में किसी से आंख तक नहीं मिला पाते थे. जब इंग्लैंड पढ़ाई के लिए गए, तो वहां भी उन्हें सार्वजनिक रूप से बोलने का साहस नहीं होता था. वह लिखते हैं कि एक बार उन्होंने भाषण देने का प्रयास किया, लेकिन बोलने से पहले ही डर के मारे बैठ गए.
गांधीजी ने लिखा है कि वे स्वभाव से बहुत ही संकोची और अंतर्मुखी थे (Autobiography, Part I),
“मेरे भीतर एक ऐसी झिझक थी कि मैं अपने साथियों से आँखें मिलाने में भी डरता था। कक्षा में कोई प्रश्न पूछने का साहस नहीं होता था.”
पब्लिक स्पीकिंग क्लब ज्वाइन किया
इंग्लैंड में उन्होंने बोलने की झिझक को दूर करने के लिए पब्लिक स्पीकिंग क्लब ज्वाइन किया. शुरुआत में कठिनाई हुई, पर धीरे-धीरे शब्दों को सटीक और संक्षिप्त रूप से रखने का अभ्यास किया. गांधीजी मानते थे कि अगर विचार सच्चे हों और आत्मा से निकले हों, तो कम शब्दों में भी असर पैदा किया जा सकता है.
वह लिखते हैं कि इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान एक स्पीकिंग सोसाइटी की बैठक में उन्होंने बोलने की कोशिश की (Autobiography, Part II),
“मैं खड़ा हुआ, पर मेरे मुंह से आवाज़ ही नहीं निकली. जीभ जैसे तालू से चिपक गई. मैं तुरंत बैठ गया. मुझे शर्मिंदगी हुई. उसी दिन से मैंने निश्चय कर लिया कि मैं इस सोसाइटी में फिर कभी बोलने की कोशिश नहीं करूंगा.”
जज के सामने खड़े हुए और नहीं बोल पाए
गांधीजी वकालत करने के लिए जब भारत लौटे तो उनका पहला केस “राजकोट की अदालत” में था. जब वह जज के सामने जिरह के लिए खड़े हुए, वह फिर नहीं बोल पाए. लोग उनकी हंसी उड़ाने लगे. उसमें वह लिखते हैं (Autobiography, Part II, Chapter: “Called by the Client”)
“मैंने गवाहों से जिरह करनी चाही, पर मुंह से शब्द ही नहीं निकले. मैं वहां खड़ा रहा और पूरी तरह चुप्पी साध ली. अंत में मैंने जज से कहा कि मैं यह केस नहीं चला सकता. मुझे भारी शर्मिंदगी उठानी पड़ी.”
अदालत में पैर कांपने लगे
गांधीजी के जीवन का असली मोड़ दक्षिण अफ्रीका में आया. वहां उन्हें भारतीय समुदाय के अधिकारों के लिए अदालतों और सार्वजनिक सभाओं में बोलना पड़ा. एक घटना ऐसी हुई कि वह बोलने के लिए खड़े हुए और उनके पैर कांपने लगे. (Autobiography, Part III)
“जब मैं खड़ा हुआ, तो दिल जोर से धड़कने लगा. बोलते-बोलते मैं अटकने लगा. मुझे लगा कि मैं गिर पड़ूंगा लेकिन मैंने अपने को संभाला. धीरे-धीरे बोलना शुरू किया. अदालत ने धैर्य से मेरी दलीलें सुनीं. उसी दिन मैंने सीखा कि डर से भागना नहीं है.”
उन्होंने लिखा कि कोर्ट में वकील के तौर पर खड़े होकर वह घबराए लेकिन उन्होंने यह ठान लिया कि डर से भागना नहीं है. फिर हर केस और हर सभा ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया. धीरे-धीरे लोग उन्हें गंभीर, सच्चा और साहसी वक्ता मानने लगे.
आत्मविश्वास के लिए कौन सी तीन बातें अपनाईं
गांधीजी ने आत्मविश्वास लाने के लिए तीन बातें अपनाईं. पहली थी सत्य और नैतिक बल. वह मानते थे कि अगर बात सच्ची है तो डरने की ज़रूरत नहीं. दूसरी थी तैयारी और अनुशासन -वो भाषण को पहले मन ही मन सोचते, लिखते और फिर सरल शब्दों में पेश करते. तीसरी बात है आत्मसंयम – उन्होंने निडरता और आत्मविश्वास को अपने आध्यात्मिक अभ्यास (प्रार्थना, उपवास, आत्मनियंत्रण) से जोड़ा.
वही गांधी जो कभी मंच पर खड़े होकर बोल नहीं पाते थे, आगे चलकर लाखों-करोड़ों भारतीयों को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रेरित करने वाले सबसे बड़े नेता बने. उनके भाषण लंबे-चौड़े नहीं होते थे, पर उनमें गहरी सच्चाई और नैतिक ताकत होती थी. यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति बनी.
गांधीजी का मानना था कि वे कभी भी “महान वक्ता” नहीं बने, बल्कि उनकी ताकत सत्य और सरलता थी. (Autobiography, Last Chapters)
“मैं आज भी मानता हूँ कि मुझमें वक्तृत्व-कला नहीं है. मेरी शक्ति केवल सत्य और आत्मविश्वास से आती है. लोग मेरे शब्दों को नहीं बल्कि मेरे जीवन को सुनते हैं.”
गांधीजी का पहला भाषण
गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण साउथ अफ्रीका में आंदोलन के दौरान दिया. जहां वह सचमुच सफल हुए और आत्मविश्वास पाया. ये उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट भी बना. ये भाषण उन्होंने 1894 में साउथ अफ्रीका के डरबन में दिया था.

गांधीजी साउथ अफ्रीका के डरबन में वर्ष 1894 में भारतीयों को संबोधित करते हुए
गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे. वहां भारतीयों पर भेदभाव और कठोर कानून लागू किए जा रहे थे. इसी दौरान डरबन शहर में भारतीयों की एक बड़ी सार्वजनिक सभा बुलाई गई. गांधीजी से आग्रह किया गया कि वे सभा को संबोधित करें. वे बहुत झिझक रहे थे क्योंकि पहले का उनका अनुभव असफल रहा था.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा (Autobiography, Part III, Chapter: The First Public Speech),
“यह मेरा पहला सार्वजनिक भाषण था. बोलने के लिए मैं मंच पर गया, तो दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। लेकिन मैंने तय किया कि मैं वही बोलूंगा जो मेरे मन में है, और संक्षेप में बोलूंगा. जब मैंने बोलना शुरू किया, तो मुझे लगा कि मेरे शब्द भारी नहीं, हल्के हैं. परंतु सभा ने पूरे धैर्य से सुना और मेरा उत्साह बढ़ाया.”
उन्होंने भारतीयों पर हो रहे अन्याय का जिक्र किया. कहा कि अगर हम एकजुट रहें तो अंग्रेज सरकार को झुकाना संभव है. सभा के बाद भारतीय नेताओं ने उनकी बहुत तारीफ़ की. गांधीजी को पहली बार महसूस हुआ कि वे डर पर विजय पा सकते हैं. उन्होंने सीखा कि “शब्दों की चमक-दमक नहीं, बल्कि सत्य और सादगी ही जनता को छूती है.” यहीं से उनका आत्मविश्वास धीरे-धीरे इतना मजबूत हुआ कि आगे चलकर वे हजारों नहीं, लाखों लोगों की भीड़ को संबोधित करने लगे.
गांधीजी में आए इन बदलावों से देश के हजारों लाखों युवा प्रेरणा भी ले सकते हैं और सीख सकते हैं कि कैसे बिना झझके लोगों के सामने ना केवल बोल सकते हैं बल्कि अपना कांफिडेंस भी हासिल कर सकते हैं.